अग्निशिखा
- 3 Posts
- 3 Comments
दामिनी बनकर दमकती/
बादलों के बीच|
अब गगन में खो गयी है|
रक्त, मज्जा, मांस –
के टुकड़े –
गगन से गिर रहे हैं|
अश्रु का सैलाब बढ़ता जा रहा है|
भूमि पर उगने लगी है –
चिपचिपी फसलें|
तुम्हारी कोख बंजर नहीं –
पर,
यह क्या हुआ है?
नीम, पाकड़ ही सही,
पर, वृक्ष उगते|
कम से कम,
आतप त्रसित आक्लांत जन को,
एक क्षण तो ठाँव देते|
चिपचिपी फसलों पे टिकते ही नहीं हैं पाँव –
रावण की सभा में|
बालिसुत बेचैन हैं और अंजनीसुत –
अंजना के भाग्य पर कितने विवश हैं?
यह कहानी,
युग युगों तक,
राजधानी ही नहीं –
सम्पूर्ण जग में,
भारती आख्यान, काला पृष्ठ होगा|
Read Comments